Thursday, 29 December 2011

जीवनसंघर्ष

    जीवन    संघर्ष  ,
 जीवन    संघर्ष |
 दुर्गम    है   रास्ता  ,
 चलता    तू   रह    सदा  |
 धेर्य    की   प्राचीर   चढ ,
 क्या    करेगी   आपदा ?
  पर्बत   भी    देखेंगे   तेरा  उत्कर्ष |
  जीवन   संघर्ष ,
  जीवन   संघर्ष |
  कर्म    ही   आधार है ,
 कर्म   कर   सत्कर्म   कर |
    आएगी   ही   बसंत ,   
  दीप    तैयार   कर  |
   उल्लसित   हो   मना   नव  वर्ष |
  जीवन   संघर्ष ,
  जीवन   संघर्ष |
  भूल    बीती   बातों   को ,
   नए   पल   पुकार  ले |
अनुभवों    की   धूप   से ,
आज   को  सवांर   ले
नित   नए   देख   सपने सहर्ष
जीवन   संघर्ष ,
जीवन   संघर्ष |
थकना   नहीं   रुकना    नहीं ,
चलता   तू   रह    सदा |
पोंछ    श्रम    के   बिंदुओं   को ,
भाल   पर   टीका   लगा |
निश्चय  ही  होगा  विजयी  स्पर्ष |
जीवन   संघर्ष ,
जीवन   संघर्ष |


ममता

Saturday, 24 December 2011

तुम   कहो    तो ,
मैं    तुम्हे   अपना   बना   लूँ  ,
तुम   कहो   तो |

नाप   लूँ    गहराइयाँ   मैं   ,
डूब    कर   सागर   के   जल  में ,
तुम   कहो   तो   शीप   में  ,
मोती   सजा    लूँ ,
तुम कहो तो |

ग्रन्थ   बाँचू 
 या  कि   कोई ,
व्याकरण   का   छंद   गाऊं ,
तुम  कहो   तो ,
 गीत   कोई    गुनगुना   लूँ ,
तुम कहो तो |

दूँ   निमंत्रण   चाँद  को मैं ,
आ   जरा   नीचे  तो   आ
तुम  कहो तो ,
चांदनी   मे   मैं   नहा  लूँ
तुम  कहो तो |

जान  पाओगे  नहीं   तुम ,
है   ये   क्या   जादूगरी ,
तुम   कहो   तो ,
तुम  को  ही  तुम  से चुरा लूँ  |
तुम कहो तो |

तेरे   काँधे   सर   टिका  कर   ,
बात   कुछ  मन  की  कहूँ  ,
तुम  कहो  तो ,
वर्ष  नूतन  ये   मना  लूँ ,
तुम   कहो  तो |

Monday, 19 December 2011

लड़की वाले

मैं   उम्र   भर    लड़ती   रही  ,
बेटा बेटी का अंतर   मिटाने  के लिए |
थाम   कर     हाथ   मे  परचम ,
करती  रही  नेतृत्व   समानता का |
लेकिन  वही  अंतर   खड़ा    है ,
आज मेरे द्वार पर  ढीट  बन के ,
कह रहा है  तुम  लड़की  वाले हो ........

Monday, 12 December 2011

भ्रूण हत्या




गर्भ   मे   ही
कन्या   भ्रूण हत्या ,
कैसे    कर पाती है
एक माँ ?
बहुत   मंथन  के  बाद,
निकाला  है मैंने ,
अपनी अल्प बुद्धि से
ये निष्कर्ष |
जब माँ
बेटी को पाल पोश  कर
करती है बड़ा |
देती है संस्कार ,
बनाती है आत्मनिर्भर |
फिर देखती है ,
सुन्दर  सपना |
 उसके सुखी घर संसार का \
तब सामना होता है लालच से  |
धराशाई  हो  जाते  है
 सारे सपने |
युग  बदला सदी बदली,
पर नारी के लिए
बहुत थोडा हुआ बदलाव |
वो आज भी है शोषित |
बिना धन के विवाह मुश्किल |
प्रेम के सच्चे  समर्पण का
नहीं है कोई भी मूल्य
पग पग पर हैं धोके |
तिल तिल  घुट  कर जीने की  ,
विडंबना ,तो फिर
ऐसे  जीवन से बेहतर है
गर्भ में ही दफन होना |
इसी लिए ...
.आसान रास्ता ... भ्रूण  हत्या
मुझे ये लगा ..आप भी सोचें |








  

Wednesday, 30 November 2011

चूडियाँ

मैंने  अक्सर  लोगों  को कहते सुना है
कि चूडियाँ  पहन  कर घर में  बैठो
मतलब आप में साहस की कमी है
अर्थात  चूडियाँ  पहनने वाले हाथ बहुत
कमजोर होते है ...पर में इससे सहमत नहीं
इसके जवाव  मे ही मैंने ये रचना लिखी है



चूडियाँ   निर्बल  नही  हैं, शक्ति  है   ये  चूडियाँ |
नारी    का   श्रंगार  है ,सम्मान   हैं  ये चूडियाँ |

पहनती     माँ    शारदा  ,
जब  चूडियाँ निज हाथ में|
दीप  बन  जाती   अँधेरी ,
काली   काली  रात    में|
थाम  कर ऊँगली दिखाती हैं
तुम्हें   पथ   ज्ञान   का
बुध्धि,  बल  ,ममता   दया   का  दान है ये चूडियाँ
नारी   का   श्रंगार   हैं  सम्मान  हैं  ये   चूडियाँ 

सजती  थी   ये झांसी  की ,
वीरंगना   के  हाथ    मे |
नाम अंकित  कर गई  जो ,
शक्ति  का  इतिहास   में|
देश  के  इतिहास  के पन्ने ,
पलट   कर    देख  लो |
ललनाओं  के  हाथ मे  शमशीर  थी  ये चूडियाँ |
नारी  का  श्रंगार  है  सम्मान  हैं   ये चूडियाँ |

माँ   भवानी  के न  जाने ,
कितने    सारे   रूप   हैं |
हैं  कही  पर  छाव  जैसी  ,
और  कही  पर धूप   हैं |
युद्ध   के    मैदान    मैं,
पहुची लिए तलवार जब ,|
राक्षसों    के   रक्त   का  नित  पान  करती चूडियाँ
नारी   का   श्रंगार  हैं   सम्मान  हैं   ये   चूडियाँ 

माँ  बनी  बेटी बनी  और,
प्रियतमा    भी बन गयी  |
प्रेम का  बंधन  ह्रदय की,
भावना   भी  बन  गयी |
तुम  इन्हें  कच्ची  न समझो
हैं  भले  ये    कांच  की
वक्त  आने पर  बदलती  रूप   हैं  ये चूडियाँ |
नारी  का  श्रंगार  हैं   सम्मान  हैं  ये चूडियाँ |

राष्ट्र  की  सर्वोच्च  सत्ता ,
पर  भी  ये  सजती   रहीं |
रक्त  बेटों  का   समर्पित ,
राष्ट्र   को   करती   रहीं
देश   पर   शंकट   अगर    आ  जाये   तो
हँसते  हँसते   देश  पर   कुर्बान   हैं   चूडियाँ
नारी  का   श्रंगार   हैं  सम्मान  हैं  ये  चूडियाँ

Monday, 28 November 2011

आदमी

ओड़ कर चादर दुखों की
 चिंताओं के बोझ  की
चल रहा है आदमी
ओर अंतस मैं सुलगती
 दंभ की इस आग मैं
जल रहा है आदमी
दाह की पीड़ा भयंकर
टीस मन मैं झेलता
पल रहा है आदमी
जाने किसकी चाह है
चाह मैं जिसकी निरंतर
गल रहा है आदमी
मोहनी मीठी जुबां से
जाल सब्दों के बिछा
छल रहा है आदमी
भावनाये हैं तिरोहित
होले होले यन्त्र मैं
ढल रहा है आदमी
तन हुआ बूढा बहुत तो
अपने ही घर द्वार को
खल रहा है आदमी
वक्त की ठोकर लगी तो
हडबडा कर आँख अपनी
मल रहा है आदमी

Friday, 25 November 2011

अक्षर अक्षर जोड़ के ...

                    अक्षर  अक्षर  जोड़  के  देखो
                    शब्द   कई   बन   जाते  है
                    येही  शब्द  ओठों  पर आ कर
                    भाव   व्यक्त   कर  जाते  है


                    शब्दों  का  वजूद  अक्षर से
                    अक्षर  की  ताकत  है शब्द 
                    है इसमें  सन्देश  निहित ये
                    मिलके  साथ रहें  हम सब 

                   गुंथ जाते  है एक  साथ  तब
                   ग्रन्थ  नए   बन   जाते है
                   यही शब्द ओठों पर आ कर
                   भाव व्यक्त  कर  जाते  है

                  शब्दों  की अपनी  दुनियाँ है 
                  है  इन  का  अपना  संसार
                  प्रेम , घृणा ,मद ,लोभ ,मोह
                  इनके अपने  अगणित उदगार
                
                  अभिव्यक्ति   का  जरिया है 
                  ये  मन  का हाल  बताते है
                  यही शब्द ओठों पर आ कर
                  भाव  व्यक्त  कर जाते  है

                  एक  शब्द '' मंथरा   ''बना
                  तो रची गयी  एक'' रामायण ''
                  द्रुपद '' सुता'' का एक शब्द ही
                  बना  युद्ध  का एक  कारण
                

                 तौल मोल  शब्दों को बोलो
                 ग्यानी    लोग  बताते  है
                 यही शब्द ओठों पर आ कर
                 भाव  व्यक्त कर  जाते  है

Wednesday, 23 November 2011

विचारों का मेला

विचार  ...?
निराली  सी इनकी दुनियाँ
आते हैं  , जाते है |
निरंतर  मन के आकाश पर
घुमड़ते    रहते  है|
 आवारा     बादलों   की तरह ,
ऊपर    नीचे  
व्र्त्ताकर  ,त्रिकोण ,चतुर्भुज
असंख्य   आकृतियाँ....................|
फिर  एकदम .गुथम   गुत्था   होते   से |
कभी   कभी   एक   सरल   रेखा   जैसे  चलते   फिरते  ,हाथ  हिलाते
मुस्कुराते    हुए   चले   जाते   अपने     अपने रास्ते |

दूसरे   ही   पल ..वापस    आ    धमकते ,
कुछ     हडबडाते     से ..|
.तीव्र     गति    से    भागते     दौड़ते ,
एक     दूसरे    से     टकराते 
बन     जाते     अंतर  द्वन्द
क्षण     मात्र   मैं    ला   देते    विध्वंस |

कुछ     पलों    बाद .........स्वयं ही
 सहलाते    स्वयमेव     धावों  को |
खुद    के   लाये   विनास    को   देख    कर 
आँसू    बहाते   .सहम   जाते ,
सकुचाते   से     बैठ    जाते 
एक   कोने   में .....
चुपचाप |
चुपचाप?
क्या   सच   मैं ?
नहीं ......वे     बैठे    बैठे   ही   फूलते    रहते ,
गुब्बारे    की      तरह |
फिर    बिना   पंखों    के   ही   उड़ने   लगते
मन    के   आकाश    पर |
झूमते    लहराते     नाचते   कूदते
धमा     चोकडी    मचाते    खुशी   से    फूले    न   समाते
और ...फूलते     फूलते .....फट    जाते ...फटाक ..|

लाल     पीले होते   ,हात    लहराते
,उंगली    दिखाते
उलाहने    ..  आरोप....  प्रत्यारोप ...नजाने क्या क्या |
अरे... अरे ...भाई    रुको ...रुको   तनिक
तुम   भी    कुछ    आराम   करो
और     मुझे    भी    सोने    दो |
ख़म खः  ..नीद   खराब   कर   दी |


 




Saturday, 19 November 2011

किसी  को  हम  बुरा  कहते  किसी  को  अच्छा  कहते हैं  /
नजर   का  फेर  है   केवल   नजरिया  अपना   अपना है  /

जमानें  भर  की  खुशियाँ  हैं  मिरे  छोटे  से  इस  घर  मैं  /
वो  हैं   बेचैन   महलों    मैं   नजरिया   अपना  अपना  है  /

कहानी   मेरी  खुशियों  की   उन्हें   झूटी  सी   लगती है  /
गिला  हम  भी  नहीं  करते  नजरिया  अपना अपना है  /

हदें  जब  पार  ही  कर  ली  तो  समझाना   भला  कैसा  /
यहाँ  दुनिया  में  जीने  का  नजरिया  अपना  अपना है  /

क़यामत   है   इनायत   है   इबादत   है    मोहोब्बत  ये  /
इसे   महसूस  करने   का   नजरिया   अपना  अपना है  /

कभी   हम   गीत   गाते  है   गजल   भी  गुनगुनाते  है  /
खुसी  इजहार  करने  का  नजरिया  अपना  अपना है  /

Thursday, 17 November 2011

अंजुरी   मैं  भरे
,तर्पण  के जल जैसा ,
है ये जीवन |
जो टपकता है ,बूंद बूंद ,
नीचे  की ओर  रिसता हुआ |
हर बूंद  एक
साँस  की तरह ,
जो हवा मैं बिखरती है और
हो जाती है विलीन
शून्य  मैं |

टिप टिप गिरती बूंदों  से ,
नजाने कितने
बुझाते है अपनी प्यास |
ले कर तृप्ति
चल देते है अपने अपने रास्ते   |
कोई भी नहीं देखता ,
अंजुरी  का
पलपल ...रीतना ,
जब तक बूंद है ,
तभी  तक है अंजुरी के मायने |
जब खाली हुई तो,
 सब कुछ बेमानी |
वाह रे  ..स्वार्थ
क्या ? तेरा कोई अंत नहीं .....|

Tuesday, 15 November 2011

भरम


मेरी माँ
जीती रही इसी भरम मैं ;
कि उसके बिना ,
बच्चे रह न सकेंगे
अब वो नहीं है |

अब   मैं जी रही हूँ
इसी भरम मैं |
ये सिलसिला
जारी है ,
सदियों से यूँ ही
अनवरत

ज्ञानी  कहते है ,
जगत मिथ्या है |
भरम मत
  पालो
मैं  कहती हूँ
जिस दिन माँ का भरम ,
टूट गया |
उसी दिन जगत का ,
क्षरण प्रारंभ हो जाएगा |
माँ का
भरम है तो संसार है ,
अन्यथा
कुछ भी नहीं |

Friday, 11 November 2011

प्राण प्रतिष्ठा

तेरे  भक्तों को   देखा,
आज मैंने  मंदिर मैं /
प्रतिष्ठित  कर  रहे  थे ,
वे  प्राण  तुझ मैं /
डुबा कर  दुग्ध जल घी  मैं
अनेको  पुष्प अन्नो से
तुझे  वे ढक  रहे थे
गजानन,  शिव, शिवा ,
माँ  शारदा ,नव गृह ,
सभी मे प्राण  वे
 भर रहे थे
तेरे  सारे स्वरूपों की ,
प्रतिष्ठा  कर रहे थे /

मगर
मैं  सोचती  हूँ /
किसी  मैं  प्राण  भरना ,
 यहाँ मानव  के वस्  मैं है ?
तो फिर , तेरा वजूद  क्या ?
अगर  तू है  जगत व्यापी ,
तो प्राण  किस  मैं डालना ?
ये बात  सब से,
 गर कहूँ मैं ,तो
क्या  नास्तिक  कहलाऊँगी ?
मगर
मैं  लाख चाहू भी ,
नही मन मानता मेरा ,
कि तू केवल है
 मंदिर मैं /
या कि तू केवल है
मूरत मैं /
तुझे क्या चाह फूलों की ?
न कोई चाह ,
दधि  घी की /
''चराचर '' है
जगत का जो,
भरेंगे '' प्राण '' हम कैसे ?

ओ परमेश्वर /
बता मुझ को ,
करू मैं  क्या ?
हवन   और  आरती पूजा ?
बड़ा सा भब्य  आयोजन ?
बता  सच सच ?
तुझे पाने  का
केवल
क्या यही ''मग'' है ?


Thursday, 10 November 2011

औरों पर आरोप लगाना

औरों   पर  आरोप  लगाना , 
कितना  सहज  सरल   होता   है /
बात   निराली   तो  तब   होगी ,
कोई   काम   कठिन   कर   देखो /
अपने   अंतस  मैं  तुम  झांको ,
और   खँगालो   उन   पन्नों   को  /
जहाँ   लिखे   हैं  द्वेष   द्वन्द   सब ,
मन   से   उन्हें   विलग   कर   देखो  /
क्यों   पाली   इतनी   शंकाए  ?
क्षीर   नीर   से    धवल   ह्रदय   मैं  ,
विश्वासों   के  भाव   जगा  कर  ,
जीवन   निश्छल   सा   कर   देखो  /
ये   जीवन   जितना   दुष्कर   है  ,
उतना   ही   ये   सहज   सरल   है  /
बस   लेकर    पतवार    प्रेम   की ,
सागर    पार  उतर   कर   देखो  /
चाह   नही   है   ताजमहल  की ,
दुनियाँ    की   परवाह   नहीं   है /
बस   मेरे   दिल   के  आँगन    मैं  ,
अपना   महल  बना  कर   देखो /
अपने   दुःख   मैं  सबकी   आँखे  ,
बन   जाती  सैलाब   नदी   का  /
एक  बार ,  बस   एक  बार ,  तुम 
दुःख   औरों   का  सुन  कर   देखो  /
अधरों    पर   मुस्कान   खिले  ,और
झरने   लगें   खुशी   के  मोती  ,
झूम   उठे  '' ममता ''  की    लहरें  /
ऐसी   एक   पहल   कर  देखो  /

Sunday, 6 November 2011

क्या लिखू

मैं सोचती हूँ कुछ लिखूँ
पर क्या लिखूँ कैसे लिखूँ
वो कोनसे अल्फाज लूँ
जो आज की कविता लिखूँ 
हलचल सी कुछ मन में  हुई
और शब्द भी सजने लगे
गुमसुम सी इस कलम के
हाथ  भी  चलने  लगे
फिर भाव ने आकार कलम की
उँगलियाँ भी थांम ली
तब ह्रदय ने शब्द  चुन कर
पंग्तियाँ कुछ  बाँध  ली
अब प्रश्न मन ही मन उठा
क्या काव्य की सरिता लिखूँ
मैं सोचती हू कुछ लिखूँ .........
मैं सोचती हू अब लिखूँ
किस शब्द के संसार पर
रूप पर श्रंगार पर या
दुःख के अम्बार पर
टूटते नाते लिखूँ या
फूटते आँसू लिखूँ
मैं  सोचती हू कुछ लिखूँ .......
पल  रहा तूफान है
और चल रहीं हैं आंधियां
जल रही बारूद है
और दूर तक हैं सिसकियाँ
जाने कब चोराहा सुलगा
राख गलियां भी हुई
गोद फिर उजड़ी कई और
माँग भी सूनी हुई
मो़त का मंजर लिखूँ  या
आग का दरिया लिखूँ 
मैं सोचती हू कुछ लिखूँ  .........
सोच कर देखो जरा
क्यों मजहबों की जंग है
एक् सा सबका पसीना
एक लहू का रंग है
एक कतरा भी लहू का
तुम यहाँ गिरने न दो
एक मोती भी किसी की
आँख से झरने  न दो
छोड़ दो सब नफरतें
और तोड़ दो इस जंग को
प्यार से मिल बैठ कर
फिर प्यार की कविता लिखू

Friday, 4 November 2011

माँ तेरे जाने के बाद

माँ  तेरे    जाने    के   बाद  ,
एक   दिन  मैं  ,
घर   गई   थी  /
गाँव    सूना   सा   लगा ,
सुनसान   सी   तेरी 
गली    थी  /
मौन   तेरे   द्वार   पर ,
वो  नीम   की  ,
डाली    खड़ी   थी /
बीच  वाली   माटी   की ,
दीवार   थी  जो  ,
बिन   तेरे   बीमार  सी  ,
बिखरी  पड़ी  थी /
बंद  थी  खिडकी  सभी ,
 और  द्वार  भी /
राह   तकती   द्वार  पर  ,
अब  तू   न  थी /
माँ   तेरे  जाने   के  बाद ..........

झाँकने   जब   मैं  लगी  ,
वो  द्वार  ,खुद  ही   खोल  कर
वो   मेरे  बचपन  का
आँगन   ,
मिलने   आया   दौड  कर /
दूर   कोने  में   खड़ी  थी  ,
अब  भी   मेरी  स्मृति  /
मोंती,   माला , कुछ   किताबें ,
गंध  सी   सोंधी   बसी /
एक   आले  मैं   पड़े  थे  कुछ ,
पुराने   से  दिए  ,
तेल  देती  बातियों   को ,
रौशनी   सी  तू   न  थी /
माँ  तेरे   जाने   के  बाद .........

घूर  कर  ये  पौर  भी  ,
मुझको  लगी  अब ताकने  /
बाद  मुद्दत   कौन ? आया ,
मेरे    अंदर  झाँकने /
हो वही  तुम  लाडली  ?जो थी ,
कभी   खेली  यहाँ  /
अब  बताओ   पास  आकार  ,
थी   अभी   तक  ,
तुम  कहाँ  ?
इतने  दिन  तक  याद  क्या  ?
तुमको   कभी  आई  नहीं /
व्याह  कर  जो  तुम  गई  तो ,
लोट   कर  आई  नहीं /
ओठ  पर  ढेरों  उलाहने  ,
आँख  मैं  उसके  नमी  थी /
माँ तेरे  जाने के बाद .......
जोड़  कर  छाती  ह्रदय  से  ,
पाट  चक्की  के  मिले  /
आँखों  ही  आँखों  मैं कुछ ,
उसने किये  सिक वे  गिले/
थाप  हल्दी  के  पुराने  थे ,
  अभी  भी  भीत  पर /
भारी  मन  से  जो  लगाये  थे ,
विदा  कि  रीत  पर /
हाथ  गालों   पर  टिकाये ,
कह  रही  थी  ओखली  /
आ गई ? मेरी  सहेली ,
नटखटी  सी  चुलबुली /
थी वही तुलसी ,वही लोटा  दिया ,
और  आरती  /
जल  चढाती   ओटले मैं  ,
तू  न थी /

माँ  तेरे  जाने  के  बाद .......



 

माँ

तस्वीर   से   झाँकती
    तुम्हारी   आँखे ,
मुझसे   पूछती   है ,
कैसी    हो ?
  मेरी बेटी /
और  मैं    हो  जाती   हूँ
व्याकुल /
फिर   तुम  बिखरा    कर
ओठों   पर 
मुस्कान ,
देती   हो  मुझे   संबल /
समझाती   हो ,
जीवन   के   रहस्य /
बिलकुल   वैसे  ही ,
जैसे   बचपन   मैं ,
थाम   कर
मेरी   ऊँगली  ,
सिखाया   था  तुमने   चलना /

मैं   करती    हूँ  प्रश्न,
तुमसे   कई   बार /
ऐसी    भी   क्या ?  जल्दी   थी  /
अभी  तो  अधूरी   थी कई   बातें /
कम   से  कम  ,
मेरे   लिए  ,
कुछ   दिन   और  ठहरती /
जब  मैं  अपने ,
मातृत्व    को   समेंट   कर ,
बेटी  को   करती  बिदा ,
तब  केवल  तुम  ही ,
समझ   सकती   थी  ,
मेरी   व्यथा /

तब   थाम   कर  मेरा  हाथ   ,
समझाती   ये   बात  ,
कि   बिछडना   तो  ,
जीवन   की   नियति    है
पर  ये  न  हो  सका /
समय   से  पहले  ,
बिछड   कर ,
टूट  गया   है  मेरा   संबल /
अब  मैं  अकेली ,
कैसे   सम्हालू
दुनियाँ   के  डरावने    छल /
कभी  चलती   हू /
कभी  लडखडाती  हू /
सारी   शक्ति    समेट कर ,
खड़ी   हो   जाती   हूँ /
और   करती  हूँ  ,
दुनियाँ   से  लड़ने  की   तयारी /
सच  कहती  हूँ ,  '' माँ ''
इन   पलों   मैं  ,
बहुत    याद   आती  है ,
तुम्हारी ....../
 



Thursday, 3 November 2011

वो हाथ पोंछ कर आँचल से

वो    हाथ    पोंछ    कर    आँचल     से ,
बर्तन    को    करती     इधर     उधर /
चावल     की      हांडी      खाली      है ,
विपदा     से   जाती  सिहर     सिहर /

आँखों    मैं     बस     इतना     सपना ,
वो       थोड़ा       अन्न      कमाएगी   /
ये     महगाई     जब    कम     होगी ,
वो    जी     भर     खाना      खायेगी  /

नित       सुबह      सबेरे     उठती   है  ,
टुकड़ों      टुकड़ों       मैं      बटती   है /
बस     भूक     मिटाने   की    खातिर ,
दिन    भर     मजदूरी     करती    है  /

महंगी      लगती      रुखी       रोटी  ,
तो    साग     कहाँ      से    खायेगी  /
ये    महगाई     जब     कम   होगी ,
वो    जी    भर      खाना     खायेगी  /

तन    मैं   पल   रहा    है  जो  अंकुर ,
वो     भीतर    तकता    टुकुर   टुकुर /
मींठे       मींठे      सपने       लेकर ,
बाहर      आने      को     है    आतुर 

माँ    की     ममता    भी    राह    तके ,
लालन     को      गोद      खिलाएगी /
ये     महगाई      जब   कम     होगी ,
वो    जी     भर    खाना      खायेगी /

फिर   चिंता    से    होकर      आतुर ,
वो    चुप चुप    अश्रु     बहाती      है /
इन    बूंदों     से     आँखे     धो    कर ,
अपने     मन    को     सहलाती    है/

जीवन    के     सरे   दुःख   सह   कर,
साहस     का       दीप       जलाएगी /
ये      महगाई   जब     कम     होगी,
वो     जी    भर     खाना    खायेगी /

हे जगदीश्वर

हे  जगदीश्वर |
हे   मर्यादा  पुरुषोत्तम |
हे   करुणानिधान /
ये  कैसा   बनाया ?               
अग्निपरीक्षा  का  विधान /
कैसे  किया ?
सीता  को  बेघर /
क्यों ?  किया
शंका  का  वरण
तुम्हारे  इसी  विधान   का
कई  कर  रहे  है ,
अनुसरण /
रोज  कई  सीतायें
होती  हैं  बेघर /
आश्रय   की  तलाश  में
भटकतीं  है ,
 दर  दर /
और  बिडम्बना  है,
ये  आज की /
कि ,  आप  से  तो  कई  हैं /
पर  अब  नहीं  है 
कोई  भी " बाल्मीकि ''......

Wednesday, 2 November 2011

ये जिंदगी का है सफर

कौन   मिल  जाए  यहाँ
इस  राह  में,
इस  मोड  पर
ये  जिदगी  का  है  सफर/
पर   है  सफर  ये  कौन  सा?
क्या  जानता   है?
 कोई   भी /
पहचानता   है ? पथ  को   भी/
किस   रास्ते  ?
 किस  मोड  पर  ?
मुड़ना  पड़े,  या  फिर  कहीं
रुकना  पड़े/
कितना  अनिश्चय  है  यहाँ,
इस  राह मैं  /
ये  जिंदगी  का है  सफर /

  है  ये  सफर
  अनजान    सा   , बिलकुल
  अपरचित/
  अनकहा    और
  अनसुना    संवाद    सा/
पर    कौन   सा   ?  संवाद  है  ये /
क्या   परस्पर    बात  है ?
और    बात    है
 तो    कौन    सी  ?
किसने    कही    ?
किसने    सुनी   ?
इस    राह    मैं
कौन  मिल  जाए  यहाँ ,
ये  जिंदगी  का  ह  सफर /

है    ये    सफर
  एक    प्यास    सा  /
पर    प्यास   है    किस    चीज     की ?
क्या    किसी    अहसास    की  ?
या  जटिल    मन   की 
गहन    गहराइयों    मैं
पल    रही    एक 
आस   की/
कौन    जाने    है     ये   क्या  ?
इस  राह  मैं ,
ये  जिंदगी  का है  सफर/

ये   सफर
  एक   चाह  है /
पर    चाह    है    ये     कौन    सी ?
अपने     करों      मैं
थाम     लूँ/
इस    जिंदगी    की     बूंद     को  /
 फिर    बंद     कर    लूँ  मुठ्ठियाँ 
  और    कैद    कर    लूँ
जिंदगी    के    सारे    पल  /

और    राज    समझूँ    जिंदगी   के,
इस  सफर  के/ 
क्यों  मिले ?  कैसे  मिले ?
हम  सब  यहाँ /
इस  राह मैं,
इस  मोड  पर, 
ये  जिंदगी  का है  सफर /

आदमी

ओड़   कर   चादर   दुखों    की
 चिंताओं    के     बोझ      की  ,
चल      रहा    है       आदमी /
ओर    अंतस     मैं  सुलगती
 दंभ     की    इस    आग   मैं,
 जल     रहा      है    आदमी /
दाह    की   पीड़ा    भयंकर
टीस    मन    मैं     झेलता ,
पल    रहा     है       आदमी /
जाने    किसकी    चाह    है ?
चाह   मैं   जिसकी    निरंतर ,
गल     रहा    है    आदमी /
मोहनी    मीठी    जुबां   से
जाल    सब्दों    के    बिछा ,
छल    रहा   है    आदमी /
भावनाये    हैं    तिरोहित
होले     होले    यन्त्र    मैं ,
ढल   रहा    है      आदमी  /
तन   हुआ   बूढा  बहुत तो
अपने   ही   घर द्वार  को ,
खल   रहा     है   आदमी /
वक्त   की   ठोकर   लगी तो
हडबडा कर   आँख  अपनी ,
मल   रहा    है    आदमी /

Tuesday, 1 November 2011

तपिश मोसम की

तपिश मोसम की ऐसी है  की जलने सी लगी है वो /
थी कतरा बर्फ का लेकिन   पिघलने सी लगी है वो  /

न  जाने कितने अरमां है     खुली बेचेन   नजरों मैं  /
निगाहों के  ये  मनसूबे     समझने  सी  लगी है वो  /

यहाँ आबाद महफिल है    मगर फिर भी है  वो तनहा  /
न  जाने किस की चाहत   मैं बदलने सी  लगी है वो  /

पिघल  कर बर्फ का कतरा   बनी छोटा सा एक दरिया /
मिलेगी  अब   समंदर  से     सफर  करने  लगी  है वो /

नई   दुनियाँ मिली उसको    समंदर की लहर बन कर /
किनारों  से लिपटने   को     मचलने   सी  लगी है वो /




रेत के महल सा

रेत   के  महल   सा   ढह   गया   वो   सपना /
जो   मैंने   देखा   था
अधखुली   आँखों   से
कच्ची   नींद   मैं  /
पथरीली   नुकीली
चट्टान    सी
सामने   थी   सच्चाई  /
बेखोफ   बेरहम
चिलचिलाती    धूप    सी  /
और   चढ   कर
पहुचना    था   शिखर   तक   /
लहराना   था
परचम   भी   अपनी    विजय    का  /
चढते    चढते
पैर   थक    गए   हैं
लथपत   हैं   खून   से  /
थामकर   उम्मीद   का   दामन
चढ   रही   हूँ    अनवरत  /
कभी    तो ?
कहीं   न   कहीं  ?
कोई   मिलेगा ,  जो   समझेगा
मेरे   सपने   को  /
और   बढाएगा   अपना   हाथ
मदद   के   लिए   /
बस   उसी   क्षण   का  है   इन्तजार ,
ऐसे   ही   किसी   खास   को
सोंप   दूँ
दिल   का   टुकड़ा
मैं   फिर   देखती  हूँ   सपना     एक बार /

Sunday, 30 October 2011

किसी को हम बुरा

किसी  को  हम  बुरा  कहते  किसी  को  अच्छा  कहते हैं  /
नजर   का  फेर  है   केवल   नजरिया  अपना   अपना है  /

जमानें  भर  की  खुशियाँ  हैं  मिरे  छोटे  से  इस  घर  मैं  /
वो  हैं   बेचैन   महलों    मैं   नजरिया   अपना  अपना  है  /

कहानी   मेरी  खुशियों  की   उन्हें   झूटी  सी   लगती है  /
गिला  हम  भी  नहीं  करते  नजरिया  अपना अपना है  /

हदें  जब  पार  ही  कर  ली  तो  समझाना   भला  कैसा  /
यहाँ  दुनिया  में  जीने  का  नजरिया  अपना  अपना है  /

क़यामत   है   इनायत   है   इबादत   है    मोहोब्बत  ये  /
इसे   महसूस  करने   का   नजरिया   अपना  अपना है  /

कभी   हम   गीत   गाते  है   गजल   भी  गुनगुनाते  है  /
खुसी  इजहार  करने  का  नजरिया  अपना  अपना है  /

आतंकबाद

भुलाये    भूलता   नहीं   वो   बीती    रात    का     मंजर  /
सिसकियाँ   खून  और  चीखों   भरे   हालत   का   मंजर  /

कहीं    जलते   हैं   चोराहे    कही    गलियारे   जलते   हैं  /
जला   कर   बस्तियां   सारी   सजाया   राख   का  मंजर  /

जिधर   देखो   उदासी   है   ये   कैसा   खोफ   का   आलम   /
डरी    बेबस   निगाहों   मैं   धडकती    साँस   का   मंजर   /

घुली   बारूद   पानी   मैं   बही   हैं    आग    की    नदियाँ  /
टपकती  आँख   से   आंसू   के  इस    हालत  का   मंजर  /

कहीं   मंदिर   कहीं   मस्जिद   कही   अरदास   होती   है /
धर्म   के   नाम   पर   चलते   हुए   व्यापर   का    मंजर  /

खुदा   की    जुस्तजू    उनको    खुदी   से  दूर   रहते   हैं  /
बसी  हैं   नफरते  दिल   मैं   सुलगता   आग  का   मंजर   /

Saturday, 29 October 2011

हट जाएगा घनघोर

हट जाएगा  घनघोर तिमिर ,
       छट जाएगा सब अंधकार  /
            मैं ऐसी  ज्योति जलाऊगी  ,/
                 भारत मांता के चरणों मैं ,
                     दीपक बन कर जल जाँऊगी /



चेहरे पर चेहरा

चेहरे  पर  चेहरा  /
आवरण   सुनहरा  /
ढक   रहे  विद्रूप  को /
ओढ़   नकली  रूप  को   /
हम  यहाँ  पर   जी  रहे  /
चमचमाते   रूप   से  ,
 सम्मान का रस पी रहे  /
और   खुल   न  जाए
पोल  कोई   इसलिए  /
आवरण  पर  आवरण
पर  आवरण  ओढे रहे /

सजा करती थी चौपाले

सजा   करती   थी  चौपालें  पुराने  नीम के   नीचे /
मगर  अब  गाँव  में  उनके  कोई  चर्चे  नहीं  होते /

वो पीली घास  के  छप्पर  दीवालें कच्ची माटी की /
बुजुर्गों  से    भरे   पूरे  वो    चौबारे     नहीं    होते/

खनकती  चूडियाँ  ढेरों  लरजते  ओठ  और  आँखे  /
किसी  झीने  से  घूँघट  से  इशारे  अब  नहीं  होते  /

सुना  करते  थे  हम  किस्से  हमारी  दादी नानी से  /
मगर  अब  तो  बुजुर्गों  के  ठिकाने  ही  नहीं  होते  /

सदी बदली जहाँ  बदला  जमाना  अब  नया  आया  /
बिना  पैसो  के  दुनियाँ  मैं  गुजरे  अब   नहीँ  होते   /

बड़ी  हिम्मत  जुटा  कर  दिल  मैं  झाँक  कर  देखा  /
सुकूं  के  पल  पुराने  से  वहाँ  पर  अब  नहीं  होते  /






Friday, 28 October 2011

कविता

 कोरे   कागज़  पर   कुछ  लिख   कर ,
  मन     हल्का     कर     लेते      हैं  /
  कुछ   शब्दों  को   मिलाजुला कर,
  हम    कविता    लिख    लेते    हैं  /

  कभी    किसी    से    नहीं     कहीं,
  अंतर्मन    में      उठती        बातें   /
  उन    खट्टी     मीठी    बातो      से  ,
  पन्नों     को     भर     लेते       हैं  /

  कुछ   सपने   कुछ    झूठे     वादे,
  हमें     रुला    कर     चले     गए  /
 आँख   पोंछ   कर   बड़े  जतन  से ,
  फिर    सपने    बुन     लेते     हैं  /

  सपने    तो    बस    सपने    होते ,
  सपनो     का     अपना     संसार  /
  और    हकीकत   तेज    धार   सी ,
  लोहे      की       पेनी      तलवार /

  हँसना    रोना    सपने    बुनना ,
  ये     भी     एक     हकीकत   है /
  सपनो   से    ही  साहस  ले  कर ,
  अपना    मन     भर    लेते     हैं  /

   सपने    सच    भी    होते     हैं ,
   ये   बात   हमें   मालूम   तो  हैं /
  लेकिन   इन  नयनो  का   क्या ,
  ये  आँचल   तर्   कर   लेते  हैं /

  सबकी   अपनी  अलग   कहानी ,
  अलग   सभी   की  यहाँ    कथा  /
  चलो   आज  सबकी   झोली  मैं  ,
   ममता   कुछ    भर    देते    हैं  /