काया ....
न जाने कितने
उद्दाम आवेगों को झेलती ..
ढ़ोती...
आभिमान के बोझ को
नाचती ..
अहम् के इशारों पर ..
जरिया बनती .....
प्रदर्शन का
साधन बनती ...
उपभोग का
अंततः .....
हो जाती जर्जर
लेकि न मन लालाइत रहता
इसे पुनर्जीवित करने में
बसीभूत हो काया के
कभी न करता दर्शन
आत्मा का
वो सदा ही रहती
उपेक्षित !!!!!
पता ही न चला
कब इसकी साँसें टूटीं
कब हो गया अंत ?
और मन आज भी ....
आत्मा को मार कर
सजा धजा कर काया को
जीता है शान से
ममता
न जाने कितने
उद्दाम आवेगों को झेलती ..
ढ़ोती...
आभिमान के बोझ को
नाचती ..
अहम् के इशारों पर ..
जरिया बनती .....
प्रदर्शन का
साधन बनती ...
उपभोग का
अंततः .....
हो जाती जर्जर
लेकि न मन लालाइत रहता
इसे पुनर्जीवित करने में
बसीभूत हो काया के
कभी न करता दर्शन
आत्मा का
वो सदा ही रहती
उपेक्षित !!!!!
पता ही न चला
कब इसकी साँसें टूटीं
कब हो गया अंत ?
और मन आज भी ....
आत्मा को मार कर
सजा धजा कर काया को
जीता है शान से
ममता