Tuesday, 1 November 2011

रेत के महल सा

रेत   के  महल   सा   ढह   गया   वो   सपना /
जो   मैंने   देखा   था
अधखुली   आँखों   से
कच्ची   नींद   मैं  /
पथरीली   नुकीली
चट्टान    सी
सामने   थी   सच्चाई  /
बेखोफ   बेरहम
चिलचिलाती    धूप    सी  /
और   चढ   कर
पहुचना    था   शिखर   तक   /
लहराना   था
परचम   भी   अपनी    विजय    का  /
चढते    चढते
पैर   थक    गए   हैं
लथपत   हैं   खून   से  /
थामकर   उम्मीद   का   दामन
चढ   रही   हूँ    अनवरत  /
कभी    तो ?
कहीं   न   कहीं  ?
कोई   मिलेगा ,  जो   समझेगा
मेरे   सपने   को  /
और   बढाएगा   अपना   हाथ
मदद   के   लिए   /
बस   उसी   क्षण   का  है   इन्तजार ,
ऐसे   ही   किसी   खास   को
सोंप   दूँ
दिल   का   टुकड़ा
मैं   फिर   देखती  हूँ   सपना     एक बार /

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