Tuesday, 1 November 2011

तपिश मोसम की

तपिश मोसम की ऐसी है  की जलने सी लगी है वो /
थी कतरा बर्फ का लेकिन   पिघलने सी लगी है वो  /

न  जाने कितने अरमां है     खुली बेचेन   नजरों मैं  /
निगाहों के  ये  मनसूबे     समझने  सी  लगी है वो  /

यहाँ आबाद महफिल है    मगर फिर भी है  वो तनहा  /
न  जाने किस की चाहत   मैं बदलने सी  लगी है वो  /

पिघल  कर बर्फ का कतरा   बनी छोटा सा एक दरिया /
मिलेगी  अब   समंदर  से     सफर  करने  लगी  है वो /

नई   दुनियाँ मिली उसको    समंदर की लहर बन कर /
किनारों  से लिपटने   को     मचलने   सी  लगी है वो /




1 comment:

  1. वाह तन्हाई का सुन्दर चित्रण है!

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