मेरी माँ
जीती रही इसी भरम मैं ;
कि उसके बिना ,
बच्चे रह न सकेंगे
अब वो नहीं है |
अब मैं जी रही हूँ
इसी भरम मैं |
ये सिलसिला
जारी है ,
सदियों से यूँ ही
अनवरत
ज्ञानी कहते है ,
जगत मिथ्या है |
भरम मत
पालो
मैं कहती हूँ
जिस दिन माँ का भरम ,
टूट गया |
उसी दिन जगत का ,
क्षरण प्रारंभ हो जाएगा |
माँ का
भरम है तो संसार है ,
अन्यथा
कुछ भी नहीं |
इस भ्रम का सिलसिला यूँ ही चलता है...
ReplyDeleteयह भ्रम रहना ज़रुरी है ..सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल कल 16-- 11 - 2011 को यहाँ भी है
ReplyDelete...नयी पुरानी हलचल में आज ...संभावनाओं के बीज
मेरी टिप्पणी कहाँ गयी ?
ReplyDeleteयह भ्रम होना ज़रुरी है ..सुन्दर प्रस्तुति
माँ का
ReplyDeleteभरम है तो संसार है ,
अन्यथा
कुछ भी नहीं |
बहुत खूब कहा है ...।
बेहतरीन लिखा है आपने।
ReplyDeleteसादर
ममता जी ,
ReplyDeleteआपकी पोस्ट कल हलचल पर आएगी ..कृपया कल भी आ कर उत्साहवर्धन करें
आपके पोस्ट पर आना सार्थक सिद्ध हुआ । । मेरे पोस्ट पर आप आमंत्रित हैं । धन्यवाद ।
ReplyDeleteममता जी ,
ReplyDeleteमाँ का भ्रम है,तो संसार है,सुंदर प्रस्तुति ...
मेरे नए पोस्ट पर स्वागत है...
माँ का
ReplyDeleteभरम है तो संसार है ,
अन्यथा
कुछ भी नहीं |
वाह क्या बात कही है…………शानदार रचना।
संजय भास्कर
आदत...मुस्कुराने की
ब्लॉग पर आपका स्वागत है
http://sanjaybhaskar.blogspot.com
बिलकुल सही है ममता जी ,
ReplyDeleteइसलिए माँ को जग जननी जैसे अलंकार मिले हैं |
ममतामयी रचना |
बहुत गहरी कविता.भ्रम है तो दुनिया है.आप को पढ़ कर बहुत ही अच्छा लगा.
ReplyDeletesach ka sath liye bhavpurn lekhni
ReplyDeleteमाँ तो माँ है ..भरम में भी जी ही लेगी....
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