Tuesday, 15 November 2011

भरम


मेरी माँ
जीती रही इसी भरम मैं ;
कि उसके बिना ,
बच्चे रह न सकेंगे
अब वो नहीं है |

अब   मैं जी रही हूँ
इसी भरम मैं |
ये सिलसिला
जारी है ,
सदियों से यूँ ही
अनवरत

ज्ञानी  कहते है ,
जगत मिथ्या है |
भरम मत
  पालो
मैं  कहती हूँ
जिस दिन माँ का भरम ,
टूट गया |
उसी दिन जगत का ,
क्षरण प्रारंभ हो जाएगा |
माँ का
भरम है तो संसार है ,
अन्यथा
कुछ भी नहीं |

14 comments:

  1. इस भ्रम का सिलसिला यूँ ही चलता है...

    ReplyDelete
  2. यह भ्रम रहना ज़रुरी है ..सुन्दर प्रस्तुति

    ReplyDelete
  3. आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल कल 16-- 11 - 2011 को यहाँ भी है

    ...नयी पुरानी हलचल में आज ...संभावनाओं के बीज

    ReplyDelete
  4. मेरी टिप्पणी कहाँ गयी ?

    यह भ्रम होना ज़रुरी है ..सुन्दर प्रस्तुति

    ReplyDelete
  5. माँ का
    भरम है तो संसार है ,
    अन्यथा
    कुछ भी नहीं |
    बहुत खूब कहा है ...।

    ReplyDelete
  6. बेहतरीन लिखा है आपने।

    सादर

    ReplyDelete
  7. ममता जी ,
    आपकी पोस्ट कल हलचल पर आएगी ..कृपया कल भी आ कर उत्साहवर्धन करें

    ReplyDelete
  8. आपके पोस्ट पर आना सार्थक सिद्ध हुआ । । मेरे पोस्ट पर आप आमंत्रित हैं । धन्यवाद ।

    ReplyDelete
  9. ममता जी ,
    माँ का भ्रम है,तो संसार है,सुंदर प्रस्तुति ...
    मेरे नए पोस्ट पर स्वागत है...

    ReplyDelete
  10. माँ का
    भरम है तो संसार है ,
    अन्यथा
    कुछ भी नहीं |
    वाह क्या बात कही है…………शानदार रचना।

    संजय भास्कर
    आदत...मुस्कुराने की
    ब्लॉग पर आपका स्वागत है
    http://sanjaybhaskar.blogspot.com

    ReplyDelete
  11. बिलकुल सही है ममता जी ,
    इसलिए माँ को जग जननी जैसे अलंकार मिले हैं |
    ममतामयी रचना |

    ReplyDelete
  12. बहुत गहरी कविता.भ्रम है तो दुनिया है.आप को पढ़ कर बहुत ही अच्छा लगा.

    ReplyDelete
  13. माँ तो माँ है ..भरम में भी जी ही लेगी....

    ReplyDelete