ओड़ कर चादर दुखों की
चिंताओं के बोझ की
चल रहा है आदमी
ओर अंतस मैं सुलगती
दंभ की इस आग मैं
जल रहा है आदमी
दाह की पीड़ा भयंकर
टीस मन मैं झेलता
पल रहा है आदमी
जाने किसकी चाह है
चाह मैं जिसकी निरंतर
गल रहा है आदमी
मोहनी मीठी जुबां से
जाल सब्दों के बिछा
छल रहा है आदमी
भावनाये हैं तिरोहित
होले होले यन्त्र मैं
ढल रहा है आदमी
तन हुआ बूढा बहुत तो
अपने ही घर द्वार को
खल रहा है आदमी
वक्त की ठोकर लगी तो
हडबडा कर आँख अपनी
मल रहा है आदमी
चिंताओं के बोझ की
चल रहा है आदमी
ओर अंतस मैं सुलगती
दंभ की इस आग मैं
जल रहा है आदमी
दाह की पीड़ा भयंकर
टीस मन मैं झेलता
पल रहा है आदमी
जाने किसकी चाह है
चाह मैं जिसकी निरंतर
गल रहा है आदमी
मोहनी मीठी जुबां से
जाल सब्दों के बिछा
छल रहा है आदमी
भावनाये हैं तिरोहित
होले होले यन्त्र मैं
ढल रहा है आदमी
तन हुआ बूढा बहुत तो
अपने ही घर द्वार को
खल रहा है आदमी
वक्त की ठोकर लगी तो
हडबडा कर आँख अपनी
मल रहा है आदमी
वक्त की ठोकर लगी तो
ReplyDeleteहडबडा कर आँख अपनी
मल रहा है आदमी
... kyonki gaflat ki andhi daud me hai aadmi
तन हुआ बूढा बहुत तो
ReplyDeleteअपने ही घर द्वार को
खल रहा है आदमी
वक्त की ठोकर लगी तो
हडबडा कर आँख अपनी
मल रहा है आदमी
Behtareen...Ek ek panktiyan adbhut sachchai piroye huwe...
www.poeticprakash.com
भावनाये हैं तिरोहित
ReplyDeleteहोले होले यन्त्र मैं
ढल रहा है आदमी
कविता आदमी की स्थिति और नियति को पूरी तरह से उकेरती है. सुंदर रचना.
सुन्दर प्रस्तुति |मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वगत है । कृपया निमंत्रण स्वीकार करें । धन्यवाद ।
ReplyDeleteसुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ लाजवाब रचना लिखा है आपने! शानदार प्रस्तुती!
ReplyDeleteमेरे नये पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/
http://seawave-babli.blogspot.com/
आँख खोलने वाली रचना के लिए बधाई
ReplyDeleteचल रहा है आदमी
ReplyDeleteओर अंतस मैं सुलगती
दंभ की इस आग मैं
जल रहा है आदमी
दाह की पीड़ा भयंकर
टीस मन मैं झेलता
पल रहा है आदमी
वर्तमान व्यक्ति के जीवन को बेहतर ढंग से प्रस्तुत किया है आपने इस रचना के माध्यम से .....!
जाल सब्दों के बिछा
ReplyDeleteछल रहा है आदमी
भावनाये हैं तिरोहित
होले होले यन्त्र मैं
ढल रहा है आदमी
सच में ममता जी आज का तो यही परिदृश्य है ......बड़ी प्रासंगिक लगी पंक्तियाँ
Mamta ji..
ReplyDeleteRaah kitni bhi kathin ho..
Chal raha hai aadmi..
Vakt ke saanche main khud hi..
Dhal raha hai aadmi..
Jindgi main aayen sukh-dukh..
Sabke jeevan main sada..
Dard kitna bhi ho behis..
Wo nibhata hi raha...
Apne man ki aag main hi..
Jal raha hai aadmi
kitni bhi raahen kathin hon..
Chal raha hai aadmi..
Bahut sundar bhavabhivyakti..
Aapki anya rachmnaen bhi padhta rahun, esliye aapke blog ka anusaran kar raha hun..
Shubhkamnaon sahit..
Deepak..
क्या बात है दीपक जी आपकी प्रतिक्रया मैं लिखी
ReplyDeleteपंग्तियाँ बहुत खूबसूरत हैं
जाने किसकी चाह है
ReplyDeleteचाह मैं जिसकी निरंतर
गल रहा है आदमी .bahut badhiyaa.
ak bahut hi khoob soorat sarthak chintan .... vaki bahut achhi rachana .
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