Monday, 2 January 2012

सागर मे भटकी कश्ती

             सागर में भटकी सी कश्ती ,
            जा लगे किसी भी इक तट पर ,
           बस .....ऐसा  ही है ये जीवन!

             कब कहाँ कौन सा मिलेगा तट ,
              ये नहीं हमारे हातों मे \
             जो मिल जाए सो मिलजाए ,
            बस परमेश्वर के हातों में |
             हम अपनी  उर्वर साँसों से ,
            फिर महकाते हैं उस तट को |
            इक नन्हा  बीज लिए कर में ,
              जीवन  देते पूरे  बट को |
          अब इसी तले हम बस जाते ,
            रोते  धोते   हँसते   गाते |
            सपने   बुनते  बातें  गुनते ,
            अपने  तेरे  नाते     चुनते |
           बस यही ठाँव फिर बन  जाता ,
            ये तट अपना  घर  कहलाता |
              पर प्रश्न  सदा ही मन  में  हैं

           यदि....तट हम स्वयं  कभी  चुनते ?
             तो बात और ही कुछ होती |
             हम चुनते सारे सपनों को .......
               हम चुनते सारे अपनों को .......
      

             क्यों सहते कटने  की पीड़ा ...
              हम रहते सबसे मिले जुले ...
             ...
              पर क्यों कटने  की रीति बनी ?
             इस घर से कट के उस घर में .....
              क्यों जाने की है मज़बूरी .....
             क्या ये संभव है नहीं कभी ?
               हम जुड़ते  बस जुड़ते जाते ....
              जुड़ते जुड़ते जुड़ते जुड़ते ....
               बट वृक्ष  बड़ा सा बन जाते .....

ममता


23 comments:

  1. bhavnaaon ka anootha sangam hai aapki rachna me.bahut sundar.nav varsh mubarak ho aapko.

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  2. सागर में भटकी सी कश्ती ,
    जा लगे किसी भी इक तट पर ,
    बस .....ऐसा ही है ये जीवन!
    bilkul... kafi gahri rachna

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  3. क्यों जाने की है मज़बूरी .....
    क्या ये संभव है नहीं कभी ?
    हम जुड़ते बस जुड़ते जाते ....
    जुड़ते जुड़ते जुड़ते जुड़ते ....
    बट वृक्ष बड़ा सा बन जाते .....


    ....गहन भावों की बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति...नव वर्ष की शुभकामनायें!

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  4. jivan ke is sundar tat par mera man atak gaya hai ..bahut hi sundar

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  5. बहुत सुन्दर ममता जी..
    शुभकामनाये.

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  6. गहरी सोच से उपजी ये रचना !
    बेहद सुन्दर !

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  7. प्रभावशाली रचना,बधाई....

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  8. वाह ...बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति।

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  9. नारी मन की पीड़ा को सफल अभिव्यक्ति दी है आपने। लेकिन यह भी एक सच होता जा रहा है आज के भौतिक युग में कि हम सभी अपनी जड़ों से कट कर कहीं अन्यत्र पल/बस रहे हैं।

    'मन की दुनियाँ' हिंगलिस के बजाय हिंदी में भी लिखा जा सकता है।

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  10. प्रस्तुति अच्छी लगी । मेरे नए पोस्ट " जाके परदेशवा में भुलाई गईल राजा जी" पर आपके प्रतिक्रियाओं की आतुरता से प्रतीक्षा रहेगी । नव-वर्ष की मंगलमय एवं अशेष शुभकामनाओं के साथ ।

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  11. मन के उमड़ते भावों को शब्द दिए हैं अपने ...
    अच्छी रचना है ..

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  12. पर क्यों कटने की रीति बनी ?
    इस घर से कट के उस घर में .....
    क्यों जाने की है मज़बूरी .....
    क्या ये संभव है नहीं कभी ?
    हम जुड़ते बस जुड़ते जाते ....
    जुड़ते जुड़ते जुड़ते जुड़ते ....
    बट वृक्ष बड़ा सा बन जाते .....
    ...kash aisa hota!! achhi-buri reeti to ham log hi banate hai.....
    bahut badiya chintansheel prastuti..
    Navvarsh kee aapko spariwar haardik shubhkamnayen!

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  13. ममता जी

    अच्छे शब्द, गहरे भाव ...सार्थक रचना...बधाई

    नीरज

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  14. बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति.....बधाई....ममता जी

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  15. कटने की पीड़ा को समझना सरल नहीं है। आपने यह काम किया है, आभार आपको।

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  16. क्या ये संभव है नहीं कभी ?
    हम जुड़ते बस जुड़ते जाते ....
    जुड़ते जुड़ते जुड़ते जुड़ते ....
    बट वृक्ष बड़ा सा बन जाते .....
    अत्यंत भाव पूर्ण रचना शुभ कामनाएं ममता जी ...

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  17. ममता जी,...बहुत बढिया प्रस्तुति,भावपूर्ण सुंदर रचना
    new post--जिन्दगीं--

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  18. हृदय की गहराई से निकले शब्द... आभार!

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  19. हम जुड़ते बस जुड़ते जाते ....
    जुड़ते जुड़ते जुड़ते जुड़ते ....
    बट वृक्ष बड़ा सा बन जाते .....
    ---अति सुन्दर..क्या बात है ..
    -----यही तो श्रिष्टि का सर्वप्रथम, सर्वव्यापक, सर्वश्रेष्ठ भाव-तत्व है....स्नेह....लगाव...जुडाव ...प्रेम...

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  20. उच्च गूढ़ भाव तथा शब्द चयन उत्कृष्ट.

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  21. क्या ये संभव है नहीं कभी ?
    हम जुड़ते बस जुड़ते जाते ....
    जुड़ते जुड़ते जुड़ते जुड़ते ....
    बट वृक्ष बड़ा सा बन जाते .....

    मानवता की सच्ची सीख.--अति सुन्दर.

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  22. सुंदर रचना .........
    इंडिया दर्पण की ओर से नववर्ष की शुभकामनाएँ।

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