सजा करती थी चौपालें पुराने नीम के नीचे /
मगर अब गाँव में उनके कोई चर्चे नहीं होते /
वो पीली घास के छप्पर दीवालें कच्ची माटी की /
बुजुर्गों से भरे पूरे वो चौबारे नहीं होते/
खनकती चूडियाँ ढेरों लरजते ओठ और आँखे /
किसी झीने से घूँघट से इशारे अब नहीं होते /
सुना करते थे हम किस्से हमारी दादी नानी से /
मगर अब तो बुजुर्गों के ठिकाने ही नहीं होते /
सदी बदली जहाँ बदला जमाना अब नया आया /
बिना पैसो के दुनियाँ मैं गुजरे अब नहीँ होते /
बड़ी हिम्मत जुटा कर दिल मैं झाँक कर देखा /
सुकूं के पल पुराने से वहाँ पर अब नहीं होते /
मगर अब गाँव में उनके कोई चर्चे नहीं होते /
वो पीली घास के छप्पर दीवालें कच्ची माटी की /
बुजुर्गों से भरे पूरे वो चौबारे नहीं होते/
खनकती चूडियाँ ढेरों लरजते ओठ और आँखे /
किसी झीने से घूँघट से इशारे अब नहीं होते /
सुना करते थे हम किस्से हमारी दादी नानी से /
मगर अब तो बुजुर्गों के ठिकाने ही नहीं होते /
सदी बदली जहाँ बदला जमाना अब नया आया /
बिना पैसो के दुनियाँ मैं गुजरे अब नहीँ होते /
बड़ी हिम्मत जुटा कर दिल मैं झाँक कर देखा /
सुकूं के पल पुराने से वहाँ पर अब नहीं होते /
खनकती चूडियाँ ढेरों लरजते ओठ और आँखे /
ReplyDeleteकिसी झीने से घूँघट से इशारे अब नहीं होते /
सुना करते थे हम किस्से हमारी दादी नानी से /
मगर अब तो बुजुर्गों के ठिकाने ही नहीं होते /
आप बहुत अच्छा लिखती हैं ... मन को छू जाती है हर रचना