Friday 26 July 2013

रिश्तों की जमीं

रिश्तों  की जमीन
सींची  जाती है जब
 प्रेम की  कोमलभावनाओं   से
जोती जाती है
अपनत्व के हल से
डाला जाता है बीज
विस्वास का
तब निश्चित ही
 फूटता है अंकुर
अपार संभावनाओं का
पनपता है अटूट रिश्ता
नन्हे नन्हे  दो पत्ते
बन  जाते है प्रतीक
अमर प्रेम के
लहलहाती है संबंधों की फसल
फिर वो रिश्ता  कोई  सा भी हो
खूब निभता है
पर आज की इस आपाधापी में
कितना मुश्किल है
निश्छल  प्रेम
अपत्व
भरोसा
हर चहरे पर  एक मुखोटा
फायदा  नुक्सान की तराजू पर तुलते रिश्ते
अपने स्वार्थ में लिप्त आदमी
भूल चूका है
निबाहना !!!
पर कभी जब
 हो जाता है सामना विपत्ति से
तब यही लोग
थामने लगते है रिश्तों की लाठी
गिरगिट की तरह रंग बदलते है ये
ढीट होते हैं
हमेशा ही जिम्मेदार ठहराते
औरों को
दरकते रिश्तों के लिए
और खुद हाथ झाड़ कर
दूर खड़े हो जाते
मासूम बन  कर

ममता

12 comments:

  1. दुनियावी सच्चाईयों को खूब लिखा है!

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  2. बहुत सुन्दर रचना.. आभार..

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  3. सुंदर रचना.....

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  4. कितना मुश्किल है
    निश्छल प्रेम
    अपत्व
    भरोसा....
    अंतर्मन....

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  5. आज के यथार्थ की बहुत सटीक अभिव्यक्ति...

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  6. रिश्तों की जमीन को उर्वरा बनाये रखने के लिये स्नेह सिंचन अति आवश्यक है । बहुत सुंदर प्रस्तुति ।

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  7. रिश्तों का आधार निश्छल और निस्वार्थ प्रेम ही है ,और सब ऊपरी दिखावा.

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  8. आज की इस आपाधापी में
    कितना मुश्किल है
    निश्छल प्रेम
    अपनत्व
    भरोसा
    हर चहरे पर एक मुखौटा
    फायदा नुक्सान की तराजू पर तुलते रिश्ते
    अपने स्वार्थ में लिप्त आदमी
    भूल चूका है
    निबाहना !!!

    सच्चाई है आज की
    अभिशप्त हैं अभी रिश्ते !

    आदरणीया ममता बाजपेई जी
    भावपूर्ण कविता के लिए साधुवाद !

    हार्दिक मंगलकामनाओं सहित...

    ♥ रक्षाबंधन की हार्दिक शुभकामनाएं ! ♥
    -राजेन्द्र स्वर्णकार


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  9. आज के इस दौर में सटीक लगी आपकी रचना !

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  10. यही है रिश्तों की ओट से ली गई स्वार्थ की रीत। मेरा पेट हाऊ ,मैं न जानूँ काऊ।

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  11. बहुत सुंदर और उम्दा अभिव्यक्ति...बधाई...

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