Wednesday, 5 March 2014

किनारे

किनारे
 बांधे रहे नदी को
पर ये कभी नहीं कहा .की .
ठहर जाओ
नदी भी बहती रही
छू छू कर उन्हें.....
अपनी बूंदों से
बुझाती रही उनकी प्यास
वैसे प्यासी तो
 वह भी थी
पर किस से कहती ?
नदी
और प्यासी !!
कोई विस्वास करेगा ?

ममता




13 comments:

  1. नदी की प्यास कौन जानेगा !

    ReplyDelete
  2. नदी न संचय नीर...जो दूसरों को पानी पिलाते हैं...वो अक्सर प्यासे रह जाते हैं...बहुत सुंदर मनोभाव...

    ReplyDelete
  3. बहुत सुन्दर रचना....

    अनु

    ReplyDelete
  4. ऐसा ही होता है, पर यकीन कोई नहीं करता....
    कम शब्दों में गहरी बात...

    ReplyDelete
  5. समेटी रहती है नदी कितना दर्द अपने अंदर ... नदी के माध्यम से मिटना कुछ कह दिया ...

    ReplyDelete
  6. नदी न संचय नीर जो दूसरों को पानी पिलाते हैं...वो अक्सर प्यासे रह जाते हैं...बहुत सुंदर मनोभाव...

    ReplyDelete
  7. सुन्दर रचना..

    ReplyDelete
  8. बहुत प्रभावी और गहन अभिव्यक्ति...

    ReplyDelete
  9. शायद अक्सर ही यही होता होगा नदी के साथ , कौन देखता है उसकी जरूरतें . . . .
    मंगलकामनाएं !

    ReplyDelete
  10. आपके लेखन का इंतज़ार रहेगा !

    ReplyDelete
  11. नदी की प्यास को कौन समझे सिवाय नारी के -------------- सुंदर शब्दों में गहन भावाभिव्यक्ति.

    ReplyDelete
  12. नदी की प्यास को कौन समझ पाया सिवाय नारी के ....... सुंदर अभिव्यक्ति.

    ReplyDelete