बना कर एक
प्रस्तर की प्रतिमा
पूजते हैं हम उसे ,
हो कर श्रद्धावनत
माँगते हैं वरदान
और वो,
भर देती है झोलियाँ आशीषों से
वो ,होती है
हमारी आराध्य कुलदेवी रक्षक ...........
झुकाते हैं शीश
प्रस्तर की प्रतिमा
पूजते हैं हम उसे ,
हो कर श्रद्धावनत
माँगते हैं वरदान
और वो,
भर देती है झोलियाँ आशीषों से
वो ,होती है
हमारी आराध्य कुलदेवी रक्षक ...........
झुकाते हैं शीश
हो जाते हैं तृप्त दर्शन मात्र से
लेकिन ,
जब वो धर कन्या का रूप
स्थापित होती है
गर्भ में
तब ,बड़ी निष्ठुरता से
खरोंच फेंकते हैं उसे
बाहर .........
कहीं कोई स्थान नहीं उसका
न मन में न घर में
और हम फिर से
मशगूल हो जाते हैं
श्रद्धा के अभिनय में
कितने शातिर हैं हम !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
लेकिन ,
जब वो धर कन्या का रूप
स्थापित होती है
गर्भ में
तब ,बड़ी निष्ठुरता से
खरोंच फेंकते हैं उसे
बाहर .........
कहीं कोई स्थान नहीं उसका
न मन में न घर में
और हम फिर से
मशगूल हो जाते हैं
श्रद्धा के अभिनय में
कितने शातिर हैं हम !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
अच्छी रचना
ReplyDeleteबहुत सुंदर
aur insan apni is shatirta ko khatam bhi nahi karna chaahta kaisi vidambana hai.
ReplyDeleteइतने शातिर कि भगवान् को भी धोखा देकर चलते हैं !
ReplyDeleteलेकिन ,
ReplyDeleteजब वो धर कन्या का रूप
स्थापित होती है
गर्भ में
तब ,बड़ी निष्ठुरता से
खरोंच फेंकते हैं उसे
बाहर .........
कहीं कोई स्थान नहीं उसका
न मन में न घर में
और हम फिर से
मशगूल हो जाते हैं
श्रद्धा के अभिनय में
कितने शातिर हैं हम !!!!!!!!उत्कृष्ट प्रस्तुति,,,,
RECENT POST : ऐ माता तेरे बेटे हम
सटीक कही है बात ...बहुत सुन्दर !
ReplyDeleteउत्कृष्ट प्रस्तुति....
ReplyDeletesach me bahut shatir ho gaye hain ham....
ReplyDeleteवाकई ...
ReplyDeleteमंगल कामनाएं आपको !
विजय दशमी की शुभ कामनाएं ...
ReplyDeleteSACH KAHA AAPNE
ReplyDeleteये कडुवी सचाई है समाज की ... उसके दोगलेपन की ...
ReplyDeleteशशक्त प्रभावी रचना ...
बहुत सही,यहीं विडम्बना है और जिम्मेदार हमारे बीच ही बैठा हो सकता है
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