Sunday, 23 September 2012

काया

काया ....
न जाने  कितने
उद्दाम  आवेगों  को  झेलती ..


ढ़ोती...
     आभिमान   के   बोझ  को
नाचती ..
अहम्  के  इशारों   पर ..
जरिया   बनती .....
प्रदर्शन    का
साधन  बनती ...
उपभोग  का


अंततः .....

हो  जाती  जर्जर
 लेकि न   मन   लालाइत   रहता
इसे   पुनर्जीवित   करने  में

बसीभूत   हो    काया   के
कभी    न करता   दर्शन
  आत्मा  का
वो   सदा   ही   रहती
उपेक्षित !!!!!

पता  ही    न   चला
 कब  इसकी   साँसें  टूटीं
 कब हो गया अंत ?
और  मन  आज भी ....
आत्मा को मार कर

सजा  धजा  कर  काया  को
जीता  है  शान  से



ममता 

14 comments:

  1. यही तो माध्यम है जिंदगी के जीने का , सार्थक पंक्तियों की रचना हेतु हार्दिक बधाई |

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  2. जानते हैं कि काया नश्वर है फिर भी आत्मा को मार कर काया की ही फिक्र रहती है .... गहन भाव लिए सोचने पर मजबूर करती रचना

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  3. काया-नश्वर
    आत्मा-अमर
    पर काया के भौतिक मोह में आत्मा हो जाती है नश्वर

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  4. पता ही न चला
    कब इसकी साँसें टूटीं
    कब हो गया अंत ?
    और मन आज भी ....
    आत्मा को मार कर
    सजा धजा कर काया को
    जीता है शान से,,,,,प्रभावित करती पंक्तियाँ,,बहुत बेहतरीन,,,,

    RECENT POST समय ठहर उस क्षण,है जाता

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  5. मन-आत्मा के बीच की दूरियों को इंगित करती सुंदर कविता.

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  6. मार्मिक प्रस्तुति

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  7. गहन भाव लिए बेहतरीन कविता बधाई

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  8. बहुत मार्मिक प्रस्तुति...आभार..

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  9. पता ही न चला
    कब इसकी साँसें टूटीं
    कब हो गया अंत ?
    और मन आज भी ....
    आत्मा को मार कर

    सजा धजा कर काया को
    जीता है शान से
    sahi kaha hai ....

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  10. गहन भाव लिए विचारणीय रचना...

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