Sunday 24 March 2013

प्रतीक्षारत


मैं ,
जिस्म के अन्दर बसी
 एक आत्मा
प्रतीक्षारत हूँ
 सदियों से
उस एक पल के लिए ,जो
हर ले मेरी
 विकलता
भर ले अपनी अंजुरी में
छटपटाती
 संवेदनाएं
और पी ले ,
एक घूंट भावनाओं का
बदले में ,
दे दे अपनत्व ,
एक तिनका सहारे का,
एक कनी मुस्कराहट की ,
एक क्षण
 सास्वत प्रेम का

कितने युग बीते
मैंने
 कितनी बार जिस्म बदला
काया हजारों बार मरी
लेकिन मैं
 जीवित रही
यूँ  ही प्रतीक्षारत
आज तक मुझ पर
कोई द्रष्टि नहीं गई !!!!
जाती भी कैसे ?
वो सदा ही टिकी रही
 मेरे जिस्म पर !!!!!

7 comments:

  1. बहुत ही उम्दा भावों की प्रस्तुति ,,,
    होली की हार्दिक शुभकामनायें!
    Recent post: रंगों के दोहे ,

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  2. यूँ ही प्रतीक्षारत
    आज तक मुझ पर
    कोई द्रष्टि नहीं गई !!!!
    जाती भी कैसे ?
    वो सदा ही टिकी रही
    मेरे जिस्म पर !!!!!
    ekdam steek baat kah di aapne..

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  3. जिस्म से परे रूह का सौन्दर्य !
    भावपूर्ण !

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  4. बहुत ही सुन्दर कविता है, आपको बहुत बहुत बधाई।
    मेरी धर्मपत्नी को ये कविता बहुत पसंद आई, वो भी आपको बधाई दे रही है .
    कम शब्दों में आपने सबकुछ लिख डाला . वो हजारो साल का संघर्ष की एक प्राणी (औरत ) दुनिया को अपने व्यक्तित्व के एहसास के लिए जूझ रहा है की लोग अपनी नजरे उसके जिस्म से हटा कर उसे सिर्फ एक इंसान के रूप में जाने और समझे .

    बहुत बढ़िया ,,,बहुत ही बढ़िया .

    Vishvnath

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  5. शुक्रया विस्वनाथ जी है

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  6. chir abhilasha ..............!

    Na jaane kab bdlegi purushon ki pravratti.

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