Saturday 29 October 2011

सजा करती थी चौपाले

सजा   करती   थी  चौपालें  पुराने  नीम के   नीचे /
मगर  अब  गाँव  में  उनके  कोई  चर्चे  नहीं  होते /

वो पीली घास  के  छप्पर  दीवालें कच्ची माटी की /
बुजुर्गों  से    भरे   पूरे  वो    चौबारे     नहीं    होते/

खनकती  चूडियाँ  ढेरों  लरजते  ओठ  और  आँखे  /
किसी  झीने  से  घूँघट  से  इशारे  अब  नहीं  होते  /

सुना  करते  थे  हम  किस्से  हमारी  दादी नानी से  /
मगर  अब  तो  बुजुर्गों  के  ठिकाने  ही  नहीं  होते  /

सदी बदली जहाँ  बदला  जमाना  अब  नया  आया  /
बिना  पैसो  के  दुनियाँ  मैं  गुजरे  अब   नहीँ  होते   /

बड़ी  हिम्मत  जुटा  कर  दिल  मैं  झाँक  कर  देखा  /
सुकूं  के  पल  पुराने  से  वहाँ  पर  अब  नहीं  होते  /






1 comment:

  1. खनकती चूडियाँ ढेरों लरजते ओठ और आँखे /
    किसी झीने से घूँघट से इशारे अब नहीं होते /

    सुना करते थे हम किस्से हमारी दादी नानी से /
    मगर अब तो बुजुर्गों के ठिकाने ही नहीं होते /

    आप बहुत अच्छा लिखती हैं ... मन को छू जाती है हर रचना

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